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खुशबुओं का शहर

अशोक मधुप

प्रकाशक : जे एम डी पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16037
आईएसबीएन :81-86602-23-2

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हिन्दी ग़जल संकलन

आमुख


कविता की उत्पत्ति महर्षि बाल्मीकि के कंठ से मुखरित -
'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौन्च मिथुनादेक मवधीः काम मोहितम् ।।
जैसी मार्मिक अनुभूति से हुई, जिसे भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में आदि कविता के रूप में माना जाता है। भारतीय वॉङ्गमय सदैव साहित्य, संगीत और कला की सरस त्रिवेणी का स्रोत रहा है, जहाँ कविता ने साहित्य को ही समग्र रूपेण अंगीकार कर अपने को रूपायित किया, वहीं छन्दबद्ध होकर उसने संगीत को भी समाहित किया और फिर रस-अलंकारादि की सृष्टि कर वह कला से भी समन्वित हुई। उर्दू में ग़ज़ल एक छन्द विधान मात्र ही न रहकर एक काव्य-संस्कृति बन चुकी है और आजकल हिन्दी में भी इसका प्रणयन वेग पर है।

वस्तुतः हिन्दी-ग़ज़ल, उर्दू-फारसी की शे'रो-अदब से आयातित वह ग़ज़लिया काव्य शैली है, जिसमें पूर्व निर्धारित 'बहर' में आबद्ध अनेक शे'रों के माध्यम से प्रतीकों एवं बिम्बों का सहारा लेकर आम आदमी की सहज अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान करती है। 'ग़ज़ल' शब्द मूलतः (अरबी स्त्रीलिंग) 'बाज़ानामा गुफ़्तगू कैर दैन' अर्थात स्त्रियों (प्रेमिका) से वार्तालाप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह काव्य विधा जिसमें नारी के सौन्दर्य एवं प्रेम-प्रसंगों का वर्णन हो। उर्दू-फारसी में ग़ज़ल का अर्थ सुन्दरियों के 'हुस्नो-इश्क' की चर्चा करना माना गया है। हिन्दी कविता में ग़ज़लिया काव्य शैली का यह रूप उर्दू से, उर्दू में फारसी से, फारसी में अरबी से आया है। अतः ग़ज़ल की मूल व्युत्पत्ति अरबी शे'रो-अदब से हुई मानी जाती है।

ग़ज़ल में प्रयुक्त स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली कविता की दो पंक्तियों (मिसरों) को शे'र कहते हैं। ग़ज़ल के पहले शे'र को ‘मतला' तथा अन्तिम शेर को 'मक्ता' कहा जाता है। मतला अर्थात पहले शे'र की दोनों पंक्तियों (मिसरों) में तुकान्त अर्थात काफिया-रदीफ़ होता है। प्रत्येक शे'र में काफ़िया तुक के अनुरूप बदलता रहता है तथा रदीफ़ स्थायी रहता है। ग़ज़ल में शे'रों की संख्या कम से कम पाँच होनी चाहिये।

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    अनुक्रम

  1. भूमिका
  2. आमुख
  3. अनुक्रमणिका

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